Month: जून 2017

कुछ भी व्यर्थ नहीं

सीमित गतिशीलता और पुराने दर्द की निराशा और अवसाद से तीन वर्षों से जूझते हुए, मैंने एक सहेली से अपनी बातें बतायी, “मेरा शरीर अत्यधिक कमज़ोर है l मानो मैं परमेश्वर अथवा किसी को भी कुछ मूल्यवान दे नहीं सकती l  

उसके हाथ मेरे हाथों पर थे l “क्या मुस्कराहट के साथ मेरा तुमसे मिलना अथवा तुम्हारी सुनना कोई अंतर नहीं डालता? क्या तुम्हारे लिए मेरी प्रार्थना अथवा एक उदार शब्द व्यर्थ है?”

मैं आरामकुर्सी में बैठकर बोली, “बिल्कुल नहीं l”

वह भौं चढ़ाकर बोली, “तब तुम खुद से ये झूठ क्यों बोल रही हो? तुम वह सब काम मेरे लिए और दूसरों के लिए करती हो l”

मैंने परमेश्वर को ये सब बातें याद दिलाने के लिए धन्यवाद दिया कि उसके लिए किया गया कोई भी कार्य व्यर्थ नहीं है l

1 कुरिन्थियों 15 में पौलुस हमें आश्वश्त करता है कि अभी हमारा शरीर कमजोर हो सकता है किन्तु वह “सामर्थ्य के साथ जी उठेगा” (पद.43) l

क्योंकि परमेश्वर की प्रतिज्ञा है कि हम मसीह में जी उठेंगे, हम उसके राज्य में अंतर लाने के लिए उसपर भरोसा करें कि वह हमारा हरेक बलिदान, हरेक छोटा प्रयास उपयोग करेगा (पद.58) l

हमारे संघर्ष में हमारी शारीरिक दुर्बलता, मुस्कराहट, उत्साहवर्धक शब्द, प्रार्थना, अथवा विश्वास का एक सबुत मसीह की विविध और स्वतंत्र देह के लिए उपयोगी होगी l प्रभु की सेवा में, कोई भी कार्य, अथवा प्रेम का कृत्य अति छोटा नहीं है l

हृदय की हालत

मैंने ध्यान दिया है कि मेरे पति आँखें बंद करके चर्च स्तुति समूह के साथ माउथ ऑर्गन पर गाना बजाते हैं l उनके अनुसार वे इससे केन्द्रित होकर बिना विकर्षण के सर्वोत्तम तरीके से बजा पाते हैं अर्थात् उनका माउथ ऑर्गन, संगीत, और सभी परमेश्वर की प्रशंसा करते हैं l

कुछ लोग सोचते हैं कि प्रार्थना में हमारी आँखें बंद होनी चाहिए l प्रार्थना कभी भी और कहीं भी करते समय, विशेषकर, चलते हुए, घास-फूस साफ़ करते और गाड़ी चलाते समय ऑंखें बंद रखना कठिन है!

परमेश्वर से बातें करते समय हमारे शरीर के ढंग के विषय कोई नियम नहीं है l सुलेमान ने अपने द्वारा निर्मित मंदिर के समर्पण के समय, घुटने टेककर “स्वर्ग की ओर हाथ [फैलाकर]” प्रार्थना किया (2 इतिहास 6:13-14) l घुटने टेकना (इफि. 3:14), खड़े होना (लूका 18:10-13), और मुँह के बल (मत्ती 26:39), प्रार्थना के सभी ढंग बाइबिल में हैं l

परमेश्वर के समक्ष घुटने टेकना अथवा खड़े होना, अपने हाथों को स्वर्ग की ओर उठाना अथवा परमेश्वर पर केन्द्रित होने के लिए अपनी आँखें बंद करना, अर्थात हमारे शरीर का ढंग नहीं, किन्तु हृदय की दशा विशेष है l हमारे हरेक कार्य “का मूल श्रोत वही है” (नीति. 4:23) l प्रार्थना करते समय, हमारे हृदय हमारे प्रेमी परमेश्वर के समक्ष इबादत, कृतज्ञता, और दीनता में झुक जाएँ, क्योंकि उसकी ऑंखें और उसके कान उसके लोगों की प्रार्थना की ओर लगी रहती हैं (2 इतिहास 6:40) l

वोल्डो को ढूँढना

वोल्डो एक लोकप्रिय उत्कृष्ट सबसे ज्यादा बिकनेवाली बच्चों की पुस्तक श्रृंखला “Where’s Waldo” का हास्य कलाकार है l वोल्डो हर पृष्ठ की भीड़भाड़ रंग भरे दृश्यों में खुद को छिपाकर बच्चों से उसे खोजने बुलाता है l संसार में हर जगह माता-पिता ऐसे क्षण पसंद करते हैं l

आरंभिक कलीसिया का सेवक, स्तिफनुस के मसीह का प्रचार करने पर पत्थरवाह से  मृत्यु के थोड़े समय बाद (देखें प्रेरित 7), अनेक मसीही व्यापक सताव के कारण यरूशलेम भागे l  एक अन्य सेवक, फिलिप्पुस, इन मसीहियों का सामरिया तक पीछा किया, जहाँ उसका प्रचार और वह स्वीकार किया गया (8:6) l वहाँ पर पवित्र आत्मा ने उसे “रागिस्तानी मार्ग” पर विशेष उद्देश्य से भेजा l सामरिया में उसकी फलदायी सेवा के कारण यह एक विचित्र निवेदन था l फिलिप्पुस का आनंद महसूस करें, जब उसने कुश देश के खजांची को यशायाह की पृष्ठों में यीशु को ढूढ़ने में मदद की (पद.26-40) l

हमें भी, अक्सर दूसरों की मदद करने का अवसर मिलता है कि वे बाइबिल में “यीशु को खोजकर” उसे पूरी तौर से जाने l माता-पिता का अपने बच्चे की आँखों में खोजने का और फिलिप्पुस का आनंद जब उसने यीशु को खोजने में कुश देश के व्यक्ति की मदद की, हमारे लिए अपने चारों ओर के लोगों में ऐसा होते देखना स्फूर्तिदायक है l हम केवल एक बार अपने जीवन में आत्मा की प्रेरणा अनुसार परिचितों और अपरिचितों को मसीह के विषय ज़रूर बताएँ l

गाने का कारण

गीत गाना हमारे मस्तिष्क को बदलता है! अध्ययन अनुसार, गीत गाने से शरीर  से होर्मोंस निकलकर चिंता और तनाव कम करते हैं l समूहगान से दिल की धड़कनें वास्तव में एक दूसरे के साथ एक ही समय में सहमत होती हैं l

प्रेरित पौलुस कलीसिया को आपस में भजन, स्तुतिगान और आत्मिक गीत गाने को उत्साहित करता है (इफि.5:19) l और बाइबिल “स्तुति करें” पचास से अधिक बार दोहराती है l  

2 इतिहास 20 में, हम परमेश्वर के लोगों को गीत गाकर परमेश्वर में भरोसा जताते हुए युद्ध में जाने की कहानी पढ़ते हैं l शत्रु के यहूदा की ओर बढ़ने पर, राजा यहोशापात ने घबराकर, प्रार्थना में समाज की गहन अगुवाई की l उन्होंने उपवास करके प्रार्थना की, “हमें कुछ नहीं सूझता ... परन्तु हमारी आँखें तेरी ओर लगी हैं” (पद.12) l अगले दिन, उनके आगे उनके सबसे खुंखार सैनिक नहीं, किन्तु उनकी संगीत मण्डली थी l उन्होंने परमेश्वर की प्रतिज्ञा पर भरोसा करके युद्ध बिना छुटकारा पाया (17) l

जब वे गाते हुए लड़ाई करने चले, शत्रु आपस में लड़ने लगे! परमेश्वर के लोगों का युद्ध भूमि में पहुँचने से पूर्व, युद्ध समाप्त हो गया l विश्वास से अज्ञात की ओर चलते और स्तुति करते हुए अपने लोगों को परमेश्वर ने बचाया l

परमेश्वर हमें अच्छे कारणों से स्तुति हेतु उत्साहित करता है l हम युद्ध में जाएँ अथवा नहीं, परमेश्वर की स्तुति हमारे विचार, हृदय और हमारे जीवनों को बदलता है l

छल्ला और अनुग्रह

अपने हाथों को देखकर मैं याद करती हूँ कि मैंने अपनी सगाई और शादी के छल्ले खो दिए l मैं यात्रा पर जाने के लिए अनेक काम में लगी थी, और नहीं मालुम वे कहाँ खो गए l

इस चिंता में कि मेरे पति को कैसा लगेगा मैं असावधानी में की गई गलती को उन्हें बताने में सहमी l किन्तु उन्होंने एक बार फिर छल्लों से अधिक मेरे प्रति सहानुभूति और चिंता दर्शायी l हालाँकि, कई बार मैं उनकी मनोहरता चाहती हूँ! इसके विपरीत, वह, मेरे विरुद्ध यह घटना याद नहीं करते है l

बहुत बार हम अपने पापों को याद करके परमेश्वर की क्षमा प्राप्ति के लिए कुछ करने की सोचते हैं l किन्तु परमेश्वर ने कहा है कि विश्वास के द्वारा अनुग्रह ही से तुम्हारा उद्धार हुआ है (इफि. 2:8-9) l परमेश्वर ने इस्राएल को एक नयी वाचा के विषय बताते समय कहा, “मैं उनका अधर्म क्षमा करूँगा, और उनका पाप फिर स्मरण न करूँगा” (यिर्म. 31:34) l हमारा परमेश्वर क्षमा करके हमारी गलतियों को स्मरण नहीं करता l

हम अपने अतीत के विषय उदास हो सकते हैं, किन्तु हमें उसकी प्रतिज्ञाओं पर भरोसा करके उसके अनुग्रह और क्षमा पर विश्वास करना है कि ये यीशु में विश्वास द्वारा वास्तविक हैं l यह समाचार और विश्वास की निश्चयता हमें धन्यवादित बनाए l जब परमेश्वर क्षमा करता है, वह भूल जाता है l

परमेश्वर बुलाता है

एक सुबह मेरी बेटी ने अपने ग्यारह माह के बेटे को मनाने के लिए अपना मोबाइल फ़ोन दे दिया l तुरन्त मेरा फ़ोन बजा, और उसे उठाते साथ उसकी छोटी आवाज़ सुनाई दी l उससे मेरे नंबर का “स्पीड डायल” बटन दब गया था और उसके बाद अविस्मरणीय “बातचीत” आरंभ हुई l मेरा नाती थोड़े शब्द बोलता है, किन्तु मेरी आवाज़ पहचानकर मुझे उत्तर देता है l इसलिए मैंने उससे बात करके कहा कि मैं उसे बहुत प्यार करती हूँ l

अपने नाती की आवाज़ सुनकर प्राप्त आनंद मेरे लिए परमेश्वर का हमारे साथ सम्बन्ध रखने की गहरी इच्छा की ताकीद थी l आरंभ ही से, बाइबिल बताती है कि परमेश्वर हमें सक्रियतापूर्वक खोज रहा है l आदम और हव्वा का परमेश्वर की आज्ञा उल्लंघन पश्चात छिपने पर परमेश्वर ने आदम से पूछा, “तू कहाँ है?” (उत्प. 3:9) l

परमेश्वर निरन्तर यीशु के द्वारा मानवता को खोजता रहा l क्योंकि परमेश्वर हमारे साथ सम्बन्ध चाहता है, उसने यीशु को संसार में क्रूस पर उसकी मृत्यु द्वारा हमारे पापों का दंड चुकाने भेजा l “जो प्रेम परमेश्वर ... रखता है, वह इस से प्रगट हुआ ....कि उसने ...हमारे पापों के प्रायश्चित के लिए अपने पुत्र को भेजा” (1 यूहन्ना 4:9-10) l

यह जानना कितना अच्छा है कि परमेश्वर हमसे प्रेम करता है और चाहता है कि हम यीशु के द्वारा उसके प्रेम का प्रतिउत्तर दें l बोलने में हमारी असमर्थता के बावजूद, हमारा पिता हमसे सुनना चाहता है!

पंद्रह मिनट की चुनौती

लम्बे समय तक हार्वर्ड विश्वविद्यालय के अध्यक्ष रहे, डॉ. चार्ल्स डब्ल्यू इलियट, मानते थे कि साधारण लोग भी निरंतर विश्व के महान साहित्य से कुछ मिनट प्रतिदिन पढ़कर अनमोल ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं l 1910 में, उन्होंने विश्व-साहित्यों से कुछ भाग चुनकर द हार्वर्ड क्लासिक्स नाम से पचास पुस्तकें संकलित कीं l पुस्तकों के हर सेट में डॉ. इलियट की “हर दिन पंद्रह मिनट” शीर्षक की पठन मार्गदर्शिका थी जिसमें पूरे वर्ष हर दिन आठ से दस पृष्ठ पढ़ने की सलाह थी l

कितना अच्छा होता यदि हम प्रतिदिन पन्द्रह मिनट परमेश्वर का वचन पढ़ते? हम भजनकार के साथ बोल पाते, “मेरे मन को लोभ की ओर नहीं, अपनी चितौनियों ही की ओर फेर दे l मेरी आँखों को व्यर्थ वस्तुओं की ओर से फेर दे; तू अपने मार्ग में मुझे जिला” (भजन 119:36-37) l

प्रतिदिन पन्द्रह मिनट जुड़कर एक वर्ष में इक्यानवे घंटे हो जाते हैं l किन्तु हम बाइबिल पठन के लिए जितना भी समय देते हों, रहस्य निरंतरता और मुख्य सामग्री सिद्धता नहीं किन्तु दृढ़ता है l यदि हम एक दिन अथवा एक सप्ताह भूल जाते हैं, हम पुनः आरंभ करें l जैसे पवित्र आत्मा सिखाता है, परमेश्वर का वचन हमारे मस्तिष्क से हृदय को ओर, उसके बाद हमारे हाथों और पैरों तक अर्थात हमें ज्ञान से रूपांतरण तक ले जाता है l

“हे यहोवा, मुझे अपनी विधियों का मार्ग दिखा दे; तब मैं उसे अंत तक पकड़े रहूँगा” (पद.33) l

हमें क्या चाहिए?

एक वृद्ध ने बताया कि उसने अपनी नतिनी से घोड़ा और बग्गी से लेकर चाँद पर चलते हुए मानव की बात की l किन्तु फिर सोचकर बोला, “मैंने कभी नहीं सोचा यह इतनी छोटी होगी l”

जीवन छोटा है, और अनेक अनंतकालिक जीवन हेतु यीशु का अनुसरण करते हैं l यह बुरा नहीं है, किन्तु समझना होगा कि अनंत जीवन है क्या l हमारी इच्छा गलत हैं l हमें कुछ बेहतर चाहिए, और हमारी सोच है कि वह अति निकट है l काश मुझे स्कूल के शीघ्र बाद नौकरी मिल जाती, मेरी शादी हो जाती l मैं सेवा-निवृत हो जाता l काश मैं ... l  और तब एक दिन दादा की आवाज़ प्रतिध्वनित हुई, समय बीत गया l

सच्चाई यह है, अभी  हमारे पास अनंत जीवन है l प्रेरित पौलुस ने लिखा, “जीवन की आत्मा की व्यवस्था ने मसीह यीशु में मुझे पाप की और मृत्यु की व्यवस्था से स्वतंत्र कर दिया (रोमियों 8:2) l शारीरिक व्यक्ति शरीर की बातों पर मन लगाते हैं; परन्तु आध्यात्मिक आत्मा की बातों पर मन लगते हैं (पद.5) l अर्थात्, हमारी इच्छाएँ मसीह के निकट आने से बदल जाती हैं l यह स्वाभाविकता से हमारी सर्वोत्तम इच्छा पूरी करता है l “आत्मा पर मन लगाना जीवन और शांति है” (पद.6) l

यह जीवन का एक सबसे बड़ा झूठ है कि वास्तविक जीवन जीने से पूर्व हमें कहीं और रहना है, कुछ और करना है, किसी और के साथ l यीशु में जीवन पाने के बाद, हम जीवन की संक्षिप्तता के अफ़सोस को उसके संग जीवन के सम्पूर्ण आनंद से अभी और हमेशा के लिए बदल लेते हैं l

सम्पूर्ण शांति

एक सहेली ने मुझे बताया कि वर्षों तक वह शांति और संतोष खोजती रही l वह और उसके पति ने एक बड़ा व्यापार स्थापित करके एक बड़ा घर, सुन्दर कपड़े, और कीमती गहने खरीदे l किन्तु इन संपत्तियों के साथ प्रभावशाली लोगों से मित्रता ने भी शांति की उसकी आन्तरिक इच्छा को सनुष्ट न कर सके l तब एक दिन जब वह उदास और परेशान थी, एक सहेली ने उसे यीशु का सुसमाचार सुनाया l वहाँ उसने शांति के राजकुमार को खोज लिया, और सच्ची शांति और संतोष के विषय उसकी समझ हमेशा के लिए बदल गयी l

अपने मित्रों के साथ आखिरी भोज खाने के बाद उसने इस तरह की ही शांति के शब्द कहे (यूहन्ना 14), जब उसने उनको आनेवाली घटनाओं-उसकी मृत्यु, पुनरुत्थान, और पवित्र आत्मा का अवतरण-के विषय तैयार किया, जो संसार देने में असमर्थ था l वह उनको कठिनाई के मध्य सुख के भाव प्राप्त करना सिखाना चाहता था l

बाद में, पुनरुत्थित प्रभु अपनी मृत्यु के बाद भयातुर शिष्यों के सामने प्रकट होकर, उनका अभिवादन किया, “तुम्हें शांति मिले!” (यूहन्ना 20:19) l अब वह उनको और हमें अपने किये हुए कार्य में विश्राम की एक नयी समझ दे सकता है l ऐसा करके हम हमेशा परिवर्तनशील भावनाओं के मध्य एक अति गहरा भरोसा प्राप्त कर सकते हैं l